आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
आत्मीयता की शक्ति
प्रेम, आत्मीयता मनुष्य की सहज स्वाभाविक वृत्तियाँ हैं, जिनके व्यक्त न होने पर मनुष्य जीवन में एक अभाव-सा अनुभव करता है। लीवमैन ने लिखा है, "अपने पड़ौसी से मैत्री भाव रखना, उससे प्रेम करना, स्वयं से प्रेम करने की आवश्यक सीढ़ी है। दूसरों से प्रेम प्राप्ति की ही नहीं वरन् अपना प्रेम दूसरों को देने की भी प्रबल वृत्ति मनुष्य में काम करती है। जब तक इसकी पूर्ति नहीं होती मनुष्य को पूर्णतः संतोष, शांति प्राप्त नहीं होती, न उसका आंतरिक विकास होता है।
जीवन में स्नेह-प्रेम एक महत्त्वपूर्ण स्वाभाविक आवश्यकता है। मनुष्य को जब तक किसी के प्रेम की प्राप्ति नहीं होती तब तक उसे जीवन में कुछ अभाव और अशांति का अनुभव होता है। प्रेम प्राप्ति की भूख बचपन में अधिक पाई जाती है। जिन बच्चों को अपने माँ-बाप का प्रेम नहीं मिलता उनका व्यक्तित्व पुष्ट नहीं होता। कई मानसिक रोगों का कारण तो बचपन में मां-बाप के प्यार का अभाव होना ही होता है। चिंता, घृणा, क्रोध, हीनता की भावना बहुत कुछ इसी कारणवश पैदा हो जाती है। दूसरों के स्नेह-प्रेम से वंचित व्यक्तियों को संसार निर्दयी, क्रूर और क्लेशमय नजर आता है।
प्रेम प्राप्ति की तरह ही मनुष्य में प्रेम देने की भावना भी होती है। प्रेम लेने की भावना बचपन की निशानी है। प्रेम देने की भावना पुष्ट व्यक्तित्व और प्रौढ़ता का आधार है। प्रेम लेने की भावना स्वार्थ, परावलंबन का रूप है तो प्रेम देना परमार्थ और स्वावलंबन है।
आत्मीयता की भावना की अभिव्यक्ति के लिए दूसरों की सेवा सहानुभूति, दूसरों के लिए उत्सर्ग का व्यावहारिक मार्ग अपनाना पड़ता है और इससे एक सुखद शांति, प्रसन्नता, संतोष की अनुभूति होती है। दूसरों की कठिनाइयाँ दूर करने के प्रयत्न में अपनी कठिनाइयाँ स्वयं, स्वतः दूर हो जाती हैं। दूसरों से आत्मीयता रखने पर आत्म-प्रेम, आत्म-मैत्री सहज ही पैदा हो जाती है। मन की समस्त शक्तियाँ केंद्रीभूत होकर काम करने लगती हैं। इस तरह आत्मीयता एक सहज और स्वाभाविक आवश्यक वृत्ति है जिससे मनुष्य को विकास, उन्नति, आत्म-संतोष की प्राप्ति होती है।
छोटा बच्चा सदैव दूसरों का प्यार चाहता है। चाह या स्वार्थ बचपन की स्थिति है, जिसमें दूसरों से सुख, आराम, प्रेम की आकांक्षा रहती है। यह वृत्ति अधिक उम्र वालों में भी हो सकती है। बचपन से आगे की विकसित भावना है अपने आपको सुखोपभोग आवश्यक पदार्थों का दूसरों के लिए त्याग करना। यह देने की दृत्ति है। जिसमें त्याग है, कष्ट सहिष्णुता है, यही आत्म-विकास की सच्ची कसौटी है। त्याग से आत्मीयता के स्वरूप का निर्णय होता है। इस तरह यह स्वार्थ से परमार्थ की साधना है। परमार्थ के लिए अपने आपको घुला देता है, वही आत्म-विकास की उच्च स्थिति प्राप्त करता है।
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